Autism In Hindi ऑटिज्म एक तरह की न्यूरो-डेवलपमेंटल डिस्ऑर्डर या मानसिक बीमारी है, जिसके लक्षण बचपन से ही नजर आने लगते हैं। भारत में प्रति वर्ष ऑटिज्म के 1 मिलियन से अधिक मामले सामने आते हैं। इस रोग से पीड़ित बच्चों में विकास अन्य बच्चों की तुलना में बहुत धीरे होता है। ये रोग जन्म से लेकर तीन वर्ष की आयु तक विकसित होता है और बच्चे के मानसिक विकास को रोक देता है। ऐसे बच्चे समाज में घुल मिल नहीं पाते, बात नहीं कर पाते और इनका आई कॉन्टेक्ट बहुत खराब होता है। इनमें कई बच्चे ऐसे भी होते हैं, जो अपनी अलग ही भाषा में अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। ऐसे बच्चों के लिए स्पीच थैरेपी बढ़िया विकल्प है।
ऑटिज्म के साथ एक बच्चा बहुत संवेदनशील होता है। जो बच्चे ऑटिस्टिक होते हैं, उनके शरीर में स्टीरियोटाइप्ड बॉडी मूवमेंट जैसे शरीर का हिलना, फडफड़ाना और हाथ हिलाना हो सकता है। कई बार, ये बच्चे अपने आसपास हो रही गतिविधियों पर ध्यान नहीं देते। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों में दौरे भी पड़ सकते हैं, जिसके बाद उन्हें हैंडल करना बहुत मुश्किल होता है। भले ही यह बच्चे मानसिक रूप से कमजोर होते हैं, लेकिन अन्य क्षेत्र में इनका दिमाग सामान्य बच्चों की तुलना में बहुत तेज चलता है। हालांकि इस बीमारी का कोई निश्चित इलाज नहीं है, फिर भी ट्रीटमेंट और थैरेपी की मदद से इसे कंट्रोल किया जा सकता है। आज के इस आर्टिकल में हम आपको बताएंगे ऑटिज्म के लक्षण, कारण और बचाव के बारे में। लेकिन इससे पहले ये जानना जरूरी है, कि ऑटिज्म होता क्या है।
ऑटिज्म एक जटिल न्यूरोबिहेविरियल स्थिति है। लक्षणों की सीमा के कारण इसे ऑटिज्म स्पैक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) कहा जाता है। एएसडी मुख्य रूप से विकलांगता से जुड़ा होता है। ये एक बच्चे के जीवन को विनाशकारी बना देता है, जिसे मुख्य रूप से संस्थागत देखभाल की जरूरत होती है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों को संवाद करने में परेशानी होती है, यह सोशल स्किल से दूर होते हैं, समय पर बोलते नहीं है, आवाज सुनने के बावजूद प्रतिक्रिया नहीं देते, उन्हें यह समझने में परेशानी होती है कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं और महसूस करते हैं। इससे उनके लिए खुद को शब्दों के साथ चेहरे के भाव और स्पर्श के माध्यम से व्यक्त करना बेहद मुश्किल हो जाता है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों मे ऑटिज्म के लक्षण चार गुना ज्यादा देखे जाते हैं।
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ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे सामान्य बच्चों से बहुत अलग होते हैं। वे अन्य बच्चों के साथ एक्टिविटीज में इनवॉल्व नहीं होते। उन्हें दूसरे बच्चों से बात करने में परेशानी हो सकती है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों को सोने, खाने में परेशानी होती है। अगर आपका बच्चा ऑटिस्टिक है, तो आपको उनके लिए कोई अच्छा स्थानीय सहायता समूह तलाशना चाहिए।
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ऑटिज्म एक विकासात्मक विकलांगता है, जो लोगों के संचार, व्यवहार और अन्य लोगों के साथ बातचीत करने के तरीके को प्रभावित करती हैं। अगर आप इसके लक्षणों के बारे में जान लें, तो जल्द ही इस बीमारी के लिए उपचार लिया जा सकता है। नीचे जान सकते हैं, ऑटिज्म के लक्षणों के बारे में।
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ऑटिज्म के कारणों का तो आज तक पता नहीं चल पाया है। इसे लेकर कई रिसर्च तो अब भी चल रही है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर एंड स्ट्रोक के अनुसार अनुवांशिकी और पर्यावरण दोनों ही निर्धारित कर सकते हैं कि ये ऑटिज्म की कंडीशन पैदा कर सकते हैं या नहीं। फिर भी शोधकर्ताओं द्वारा बताए गए कुछ कारणों के बारे में हम आपको बता रहे हैं।
परिवार में अनुवांशिकता भी ऑटिज्म का प्रमुख कारण माना जाता है, साथ ही पर्यावरणीय कारण ऑटिज्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगर आपका बच्चा विकासात्मक समस्याओं को दर्शाता है, तो यह चिंता की बात होती है। इस पर डॉक्टर आपको अधिक परीक्षणों के लिए विशेषज्ञ से संपर्क करने को कहेगा।
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ऑटिज्म तीन प्रकार का होता है, जिसके बारे में आप नीचे जान सकते हैं।
यह ऑटिज्म का एक हल्का प्रकार है। इस बीमारी से ग्रस्त लोगों में दो तरह की बातें कई बार दिखाई दे सकती हैं। पहला कि वह दूसरों से ज्यादा स्मार्ट होता है, लेकिन उसे सामाजिक कौशल से पेरशानी होती है। हालांकि ऐसे लोगों को भाषा संबंधित और बौद्धिक समस्याएं नहीं होती।
जो बच्चे देरी से बोलते हैं, असामान्य व्यवहार और रूचियां रखते हैं, वे ऑटिस्टिक डिसऑर्डर से पीड़ित होते हैं। इन लोगों की कई बौद्धिक समस्याएं भी होती हैं।
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जिन लोगों में ऑटिस्टिक और आस्पेर्गर सिंड्रोम के कुछ लक्षण दिखाई दें, वे पर्सेसिव डवलपमेंट डिसऑर्डर से पीड़ित होते हैं।
यह ऑटिज्म का सबसे दुलर्भ और गंभीर प्रकार है। यह उन बच्चों को परिभाषित करता है, जो सामान्य रूप से विकसित तो होते हैं, लेकिन बहुत जल्दी कई सामाजिक, भाषा और मानसिक कौशल खो देते हैं। आमतौर पर दो से चार साल की उम्र के बीच।
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प्रारंभिक अवस्था में निदान ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है, लेकिन एएसडी का निदान आसान नहीं होता। इसके लिए खासतौर से कोई लैब टेस्ट नहीं होता, लेकिन डॉक्टर छोटे बच्चों के व्यवहार को देखते हैं और उनके माता-पिता द्वारा बताई गई समस्याओं को जानते हैं। ऑटिज्म के डाइग्नोसिस का काम मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक मिलकर करते हैं। भारत में ऑटिज्म के निदान के लिए आमतौर पर एक टूल का प्रयोग होता है, जिसे इंडियन स्केल फॉर असिसमेंट ऑफ ऑटिज्म और चाइल्ड हुड ऑटिज्म रेटिंग स्केल कहा जाता है। ऑटिज्म का निदान दो चरणों में होता है।
विकास संबंधी जांच- बाल रोग विशेषज्ञ ऑटिज्म की जांच करने का पहला कदम है। हर बच्चे का 18-24 महीनों में चेकअप होता है, कि वो ट्रैक पर है या नहीं। भले ही फिर उन्हें कोई लक्षण न दिखे। इसमें बाल रोग विशेषज्ञ आपके बच्चे को देखेगा और उससे बात करेगा।
विस्तृत नैदानिक मूल्यांकन ( डिटेल डाइगनॉस्टिक इवैल्यूएशन) – यह ऑटिज्म के निदान का दूसरा चरण होता है। इसमें बच्चे के व्यवहार और उसमें होने वाले विकास की जांच की जाती है। इसमें जेनेटिक टेस्ट और न्यूरोलॉजिकल जैसे टेस्ट शामिल होते हैं। बता दें, कि आपके बच्चे की स्क्रीनिंग में आपकी प्रतिक्रियाएं बहुत महत्व रखती हैं।
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ऑटिज्म के लिए कोई खास इलाज नहीं है, लेकिन उपचार संबंधी विचार लोगों को बेहतर महसूस करने या उनके लक्षणों को कम करने में मदद कर सकते हैं। कई ट्रीटमेंट में थैरेपीज शामिल हैं, जैसे-
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डॉक्टरों के अनुसार जीन बच्चा पैदा करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है। दुलर्भ मामलों में डॉक्टरों का यह भी कहना है, कि अगर शिशु के गर्भ में होने पर बच्चे को रसायनों के संपर्क में लाया गया, तो बच्चा जन्म दोष के साथ पैदा होता है। लेकिन डॉक्टर यह नहीं पता लगा सकते, कि गर्भावस्था के दौरान बच्चे को ऑटिज्म है या नहीं। ऑटिस्टिक विकार वाले बच्चे को पूरी तरह से तो ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन जीवनशैली में सुधार करके स्वस्थ बच्चा होने की संभावना को बढ़ा सकते हैं।
सही मायने में देखा जाए, तो ऑटिज्म का कोई परफेक्ट इलाज नहीं है। लेकिन फिर भी कुछ थैरेपी और ट्रीटमेंट के जरिए इनका उपचार करके स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है। बेहतर होगा, कि ऑटिज्म से पीड़ित अपने बच्चे को किसी एनजीओ में एडमिट कराएं। वहां उसे कई चीजें सिखाई जाएंगी, इसके साथ ही आप खुद भी बच्चे को उसके मन मुताबिक चीजें सिखाने में मदद कर सकते हैं, ध्यान रखें कि आप उसे उसकी क्षमताओं से अलग कुछ भी सिखाने की कोशिश न करें। घर में अभिभावकों द्वारा किए गए प्रयासों से कुछ हद तक सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
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