वात दोष मानव शरीर के शारीरिक प्रदर्शन और बल सिद्धांत को नियंत्रित करते हैं। जिसके माध्यम से शरीर के प्रमुख कार्य जैसे शारीरिक क्रिया या गति, संचार, परिवहन, श्वसन, रक्त परिसंचरण और मानसिक कार्य आदि। वात दोष शरीर के उन प्रमुख दोषों में एक है जो पूरे शरीरिक स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार होते हैं। आयुर्वेद ने अभिव्यक्तियों और प्रभावों के आधार पर इन दोषों को तीन श्रोणियों में विभाजित किया है। ये तीन दोष वात, पित्त और कफ हैं। वात का अर्थ वायु से है।
वात दोष का सिद्धांत आकाश (AAKASH) वायु (VAYU) पर आधारित है। इन दोनों घटकों में आकाश (Ether) पहला तत्व है जो बहुत ही सूक्ष्म तत्व है और जिसे आकाश या स्पेस (SPACE) भी कहा जाता है। ईथर के बाद वायु दूसरा प्रमुख तत्व है जो वात दोष एक घटक है। यह ईथर (AAKASH) से विकसित होता है जिसे वायु (VAYU) कहा जाता है। वात इन दो तत्वों का संयोग है। हालांकि वात भी सूक्ष्म है इसलिए इसकी उपस्थिति केवल शरीर में अपने कार्यों द्वारा ही महसूस की जा सकती है।
(और पढ़ें – पित्त दोष क्या है जाने असंतुलित पित्त से होने वाले रोग, लक्षण और उपाय)
आयुर्वेद में वात दोष की व्याख्या बहुत ही प्रभावी ढ़ंग से की गई है। जिसके अनुसार वात दोष में प्रयोग किये गए संस्कृत शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद इस प्रकार है।
हालांकि वात को शीत (SHEETA) माना जाता है लेकिन वात योगावही (YOGAVAHI) के रूप में कार्य करता है। इसका मतलब यह है कि जब यह गर्म पदार्थ के साथ मिलता है तो यह उष्ण (USHNA) गुण्वत्ता को दर्शाता है। लेकिन जब यह ठंडे पदार्थों से मिलता है तब इसकी प्रकृति ठंडी (SHEETA) हो जाती है। हालांकि वात अपने आंतरिक गुणों को कभी भी नहीं खोता है। लेकिन यह इसके साथ जुड़े अन्य पदार्थों के गुणों को प्रभावित कर सकता है।
यह पित्त के साथ जुड़ने पर गर्माहट पैदा करता है। उसी तरह जब यह कपा से जुड़ता है तो यह ठंडक का एहसास दिला सकता है। पित्त और कपा वात के बिना काम नहीं कर सकते हैं, लेकिन वात पित्त और कपा के बिना काम कर सकता है। यही वात की स्वतंत्र प्रकृति है। वात के अपने स्वतंत्र कार्य हैं लेकिन पित्त और कपा अपने कार्यों के लिए वात पर निर्भर रहते हैं।
सामान्य शब्दों में कहा जाये तो वात तंत्रिका तंत्र के सभी प्रमुख कार्यों के लिए जिम्मेदार है। वात कार्य निम्न लिखित हैं।
वात जीवित कोशिकाओं में संचार, आंदोलन और परिवहन को नियंत्रित करता है। यह सेलुलर संरचनाओं में अणुओं के आंदोलन को निर्धारित करता है जिससे शरीर की गतिशीलता को भी नियंत्रित किया जाता है। वात मस्तिष्क से शरीर के अन्य भागों और अंगों को भी संचालित करने में अहम भूमिका निभाता है। हमारे शरीर में सेलुलर विभाजन वात के बिना संभव नहीं है। वात सेलुलर संगठन और ऊतकों के गठन के लिए आवश्यक है। यह कपा अणुओं और कोशिकाओं को ऊतकों में संयुग्मित करने में सहायक होता है। इसलिए शरीर में वात की अधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शरीर के लिए वात के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं :
यह निर्धारित करना मुश्किल है कि वात शरीर के किस प्रमुख हिस्से में होता है। क्योंकि वात पूरे शरीर और जीवित कोशिकाओं में मौजूद होता है। लेकिन फिर भी आयुर्वेद ने शरीर के कुछ प्रमुख हिस्सों को निर्दिष्ट किया है जहां मावन शरीर में वात की क्रियाएं और अभिव्यक्तियां सामान्य रूप से दिखाई देती हैं। आयुर्वेद के अनुसार नाभि के नीचे के सभी अंगों को वाल क्षेत्र माना जाता है। जिनमें शामिल हैं :
सामान्य रूप से वात के 5 प्रकार होते हैं जिन्हें हम इन नामों से जानते हैं।
योग में प्राण वायु जीवन शक्ति और महत्वपूर्ण ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है। आयुर्वेद में यह मन, बुद्धि, विवेक, तंत्रिका तंत्र, इंद्रिय अंगों, मोटर अंगों और श्वसन की मूल कार्यात्मक इकाई है।
प्राण वायु शरीर के विशिष्ट अंगों या भागों में मौजूद होती है। जैसे कि :
हालांकि प्राण वायु की उपस्थिति या स्थान को लेकर कई लोगों में अलग अलग विचार है। लेकिन यह सेलूलर स्तरों से पूरे शरीर में काम कर रहा है। इसके अवलोकन योग्य कार्य सिर और नाभि के बीच दिखाई देते हैं। फिर भी जानकारों के अनुसार प्राण वायु के तीन प्रमुख मुख्य स्थान होते हैं।
प्राण वायु के सामान्य कार्य इस प्रकार हैं :
मानव शरीर में आवश्यकता से अधिक या प्राण वायु का अधिक मात्रा होने पर कुछ सामान्य या गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। जो इस प्रकार हैं।
आमतौर प्राण वायु की अधिकता के कारण लोगों को श्वसन संबंधी सभी रोग प्राण वायु के बढ़ने के कारण होते हैं।
उदान वायु मुख्य रूप से भाषण या आवाज को नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार होता है। यह डायाफ्राम, छाती, फेफड़े, ग्रसनी और नाक के कार्यों का समर्थन करता है। उदान UDANA का अर्थ है जो शरीर के ऊपरी हिस्सों में चलती और काम करती है। उदान वायु का प्रमुख कार्य आवाज उत्पन्न करना है जो किसी से बात करने और आवाज निकालने में मदद करता है।
उदान वायु शरीर के कुछ विशेष हिस्सों पर मौजूद रहती है। जो इस प्रकार हैं :
इसके अलावा चरक संहिता के अनुसार उदान वायु मुख्य रूप से निम्न तीन क्षेत्रों में स्थिति है।
नाभि और इसके आस-पास, छातीऔर गला। भागवत (Vagbhata)के अनुसार उदान वायु मानव शरीर में गला, नाभि के आसपासऔर नाक में।
नोट : छाती में प्राण वायु और उदान वायु दोनों ही होती हैं। अंतर केवल इतना है कि प्राण वायु इस क्षेत्र में आती और जाती है जबकि उदान वायु छाती में स्थाई रूप से रहती है।
उदान वायु का हमारे दैनिक जीवन में विशेष महत्व है। उदान वायु के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं।
अन्य प्राचीन महर्षियों के अनुसार उदान वायु UDANA VAYU निम्न कार्यो के लिए भी जिम्मेदार होता है।
शरीर में उदान वायु की अधिकता होने के कारण शरीर के ऊपरी हिस्सों के रोग हो सकते हैं। इस प्रकार के रोगों में नाक, गले, आंख और कान आदि शामिल हैं। इसके अलावा प्राण वायु के साथ यह खांसी, हिचकी और सांस लेने में तकलीफ जैसी बीमारियों के लिए भी जिम्मेदार होती है।
समाना वायु पेट से बृहदान्त्र तक सहायक नहर के चैनलों में रहती है। यह विशेष रूप से आंत और पेअ में सहायक पथ के क्रमांकुचन को नियंत्रित करता है। यह भोजन को नहर में ले जाने में भी मदद करता है।
समाना वायु SAMANA VAYU का शरीर में मुख्य स्थान पेट और छोटी आंत है। लेकिन चरक के अनुसार समाना वायु शरीर में पसीना, दोष और तरल पदार्थों के चैनलों में रहता है। यह पेट और आंतों में भी मौजूद रहता है जहां यह पाचक पिट्टा (PACHAKA PITTA) के कार्यों को बनाए रखता है।
समाना वायु भोजन के यांत्रिक विघटन के लिए जिम्मेदार होता है जो पाचन रस या एंजाइम को आगे की प्रक्रिया के लिए सहायता प्रदान करता है। यह भोजन के उपयोगी हिस्से और अपशिष्ट हिस्सों को अलग करता है और भोजन के पौष्टिक भागों के अवशोषण और फेकल पदार्थ के उन्मूलन मं सहायता करता है।
शरीर में समाना वायु की अधिक मात्रा या असंतुलन होने की स्थिति में पाचन समस्याएं हो सकती हैं। इसकी वृद्धि पाचन को बदल सकती है और दोषपूर्ण आत्मसात कर सकती है। जिससे दस्त और खट्टी डकार जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
चरक के अनुसार व्यान वायु पूरे शरीर में मौजूद है। शरीर में सभी हलचलें इसके कारण ही होती हैं। व्यान वायु शरीर के लचीलापन और विस्तार, संकुचन और विश्राम, पलकों के खुलने और बंद होने आदि का कारण बनता है। यह स्वायत्त केंद्रों, मोटर केंद्रों संवेदी तंत्रिकाओं, मोटर तंत्रिकाओं, प्रतिवर्त धमनियों आदि की कार्यात्मक इकाई है। यह मुख्य रूप से केशिकाओं, परिसंचरण और पसीने की पारगम्यता को नियंत्रित करता है।
व्यान वायु पूरे शरीर में होती है और मुख्य रूप से दिल में मौजूद रहती है।
व्यान वायु शरीर के सभी स्वैच्छिक और अनैच्छिक मूवमेंटों को नियंत्रित करता है। यह रिफ्लैक्स एक्सन और तंत्रिका आवेगों के संचरण के लिए जिम्मेदार होता है। यह हृदय की लय को नियंत्रित करता है। इसके अलावा वयान वायु पसीने के स्राव को प्रेरित करता है।
जब शरीर में व्यान वायु के स्तर में वृद्धि या असंतुलन होता है तो कुछ शारीरिक समस्याएं भी हो सकती है। ऐसी समस्याओं में बुखार आना और संचार संबंधी बीमारियों के होने की संभावना अधिक होती है।
अपान वायु APANA VAYU लम्बोसैकेरल प्लेक्सस (lumbosacral plexus) को नियंत्रित करता है। यह मुख्य रूप से उन्मूलन या उत्सर्जन में भूमिका निभाता है।
अपान वायु शरीर के लगभग सभी हिस्सों में मौजूद रहती है। फिर भी जानकारों के अनुसार अपान वायु के शरीर में मुख्य स्थान इस प्रकार हैं।
शरीर में अपान वायु के संतुलन बिगड़ने या इसकी मात्रा अधिक होने से कुछ स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। जिनमें कब्ज, मूत्राशय, गर्भाशय, अंडकोष आदि से संबंधित बीमारियां शामिल हैं।
यह सिद्धांत तब लागू किया जाता है जब किसी में वात विकार का सामान्यीकरण होता है और पूरे शरीर में वात लक्षण दिखाई देते हैं। वात रोगों को दूर करने के लिए दवाओं का सेवन भोजन करने के 2 से 3 घंटे बाद सेवन करना चाहिए। इसका मतलब यह है कि भोजन पचने के बाद दवाओं का सेवन किया जाना चाहिए। यह स्थिति उन रोगीयों के लिए है जो वात के कारण पेट संबंधी परेशानियों से परेशान हैं। इसके अलावा वात रोगी इससे संबंधित दवाओं को शाम या देर रात में भी ले सकते हैं। यह तब लागू होता है जब आप तंत्रिका संबंधी विकार, सामान्यीकृत शरीर दर्द और गठिया आदि से पीड़ित होते हैं।
वात या वात रोग मौसम के अनुसार अपने प्रभाव दिखाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार गर्मी के मौसम में वात का संचय (VATA SANCHAYA) होता है। वर्षा ऋतु में वात की अधिकता (VATA PRAKOPA) होती है जबकि बढ़े हुए वात का शमन (VATA PRASHAMA)सर्दी के मौसम में होता है। आइए वात और मौसम के बीच संबंध को विस्तार से जाने।
ग्रीष्मकाल में शरीर की शक्ति कम हो जाती है जिसके कारण पाचन शक्ति भी कमजोर हो जाती है। अधिक मात्रा में पसीना आने के कारण शरीर में पानी की कमी भी आने लगती है। प्रकृति में ग्रीष्म काल के दौरान शुष्क और लघु गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों की उपस्थिति होती है। जिसके कारण शरीर में वात का संचय होता है। हालांकि इस दौरान वात नहीं बढ़ता है। लेकिन गर्मी के मौसम में अधिक गर्मी होने के कारण यह दबे हुए रूप में जमा हो जाता है। इसे वात संचय (VATA SANCHAYA) कहते हैं।
बरसात के मौसम में शरीर की ताकत और पाचन की आग कम होती है। लेकिन इस दौरान शरीर का तापमान गर्म से ठंडे के रूप में परिवर्तित होते रहता है। जो कि गर्मी के मौसम में दबे हुए वात को बढ़ाता है। इस चरण को वात की अधिकता या वात प्रकोप (VATA PRAKOPA)कहा जाता है।
सर्दी के मौसम में भूमि या जमीन गीली और वातावरण में गर्मी के कारण वात का क्षय या अंत होता है। इस चरण को वात का शमन (VATA PRASHAMA)कहा जाता है।
शरीर में यदि वात संतुलित अवस्था में होता है तो यह बेहतर स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। लेकिन वात के असंतुलन या वात में वृद्धि या कमी कई प्रकार की बीमारियों और रोग का कारण बन सकता है। वात में कमी या वृद्धि को वात असंतुलन कहा जा सकता है। वात में कमी या वृद्धि दोनों के अलग-अलग लक्षण होते हैं।
जब किसी व्यक्ति को नीचे बताए गए लक्षण महसूस होते हैं। ऐसी स्थिति शरीर में वात की कमी को दश्राती है। इन लक्षणों में शामिल हैं :
सामान्य रूप से घटे हुए वात के लक्षण शरीर में बढ़े हुए कफ के सापेक्ष होते हैं। इसलिए निम्न लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं।
किसी भी व्यक्ति निम्न लिखित लक्षण बढ़ी हुई वात को दर्शाते हैं।
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